Choose another country or region to see content specific to your location.

संजय सिंघल

उन दिनों दिल्ली में हमारा ऑफिस लाजपत नगर में था।

अगले दिन हमारे नन्हे जीवन की सबसे बड़ी परीक्षा थी। हम भारत सरकार के कई वरिष्ठ अधिकारियों, जिनमें ऊर्जा सचिव और प्रधानमंत्री के ऊर्जा सहायक भी शामिल थे, के समक्ष डेमो देने वाले थे। दिल्ली पहुंचने पर पता चला कि डेमो में सीईए के चेयरमैन और तीन डायरेक्टर भी शरीक होंगे। इस तरह, डेमो में आने वालों की संख्या करीब 80 तक होने वाली थी। अब ये तय था कि हमारी टैक्नोलॉजी दिखाने का इससे बढ़िया मौका हमें दोबारा नहीं मिलेगा।

ऑफिस में के के यादव मेरा इंतजार कर रहे थे। उन्हें कुछ दिनों पहले ही नियुक्त किया गया था, और यह कहा गया था कि डेमो से एक दिन पहले, दिल्ली में, वे अपनी नई नौकरी जॉइन कर लें। कारण सीधा था — इस डेमो से उन्हें हमारे प्रोडक्ट और टैक्नोलॉजी के बारे में बहुत कुछ सीखने को मिलता।

हम हाई-टेक डेमो किया करते थे। वो जमाना पॉवरपॉइंट के पदार्पण से पहले का था। लैपटॉप भी नहीं थे। एक पोर्टेबल कम्प्यूटर ज़रूर था। प्रोजेक्टर की तो बात ही छोड़िए, कल्पनाओं में भी नहीं था। हमारा प्रेजेंटेशन जीवन्त मीटरों के द्वारा हुआ करता था। कम्प्यूटर पर मीटरों की रीडिंग, बिल की छपाई, चोरी के तरीके और सेम्स के अन्य फायदे — ये सभी एक बड़ी टीवी स्क्रीन पर दिखाने का विचार था।

उदयपुर से निकलने से पहले डेमो का सारा सामान रवाना कर दिया गया था। इसमें एक बड़ी टीवी स्क्रीन और हमारा अकेला डेस्कटॉप कम्प्यूटर भी शामिल था।

डेमो दिल्ली के एक पांच सितारा होटल में होना था। होटल वालों ने हमें हॉल दोपहर 3 बजे देने की बात कही। निर्धारित समय पर हम सभी वहां पहुंच गए और डेमो की तैयारियां शुरू हुईं।

एक-एक कर सभी इक्विपमेन्ट कनेक्ट कर के टेस्ट किए गए। केके का हालांकि पहला दिन था, फिर भी वह काम में यूं जुट गए जैसे हम सब जुटे थे।

सभी चीज़ें ठीक-ठाक चलने लगीं, सिर्फ हमारा प्रोजेक्शन टीवी नहीं चल रहा था। पहले उसे खुद ही ठीक करने की कोशिश की। फिर टीवी कम्पनी के लोगों से बात करने की कोशिश हुई, मगर सारे प्रयास विफल रहे।

केके ने उस टीवी को खोलकर सर्किट ट्रेस करना शुरू किया और एक टूटा हुआ कैपेसिटर निकाला।खोज ने पर उन्हें कई और टूटे कैपेसिटर और अन्य पुर्ज़े मिले। अब यह तो तय हो चुका था कि हमारा टीवी प्रोजेक्टर चलने वाला नहीं है। उदयपुर से दिल्ली तक टेम्पो के सफर में उसके अंदर के पुर्ज़े ढीले होकर बिखर गए थे।

बिना स्क्रीन के डेमो संभव नहीं था। इतनी रात और कोई दूसरा बन्दोबस्त भी असंभव सा था। अगले दिन सुबह 10 बजे डेमो होना था। अब जो भी जुगाड़ करना था , वह उसी रात करना था।

यह तय किया गया कि दिल्ली में हमारी सहायक कम्पनी से 10-12 पीसी लाकर छोटे-छोटे मॉनिटर्स पर डेमो दिखाया जाए।

बस, रास्ता दिखते ही सब जुट गए। पीसी के मॉनिटर्स 8-10 कुर्सियों के बीच एक मेज़ पर रखे गए। हर पीसी में डेमो का सॉफ्टवेयर लोड कर उसे टेस्ट किया गया।

सुबह करीब 6 बजे जब सब कुछ चलने लगा तो डेमो का रिहर्सल किया। कब खाना खाया, कब विश्राम किया, कब रात बीती — पता ही न चला।

अगले दिन डेमो बहुत सफल रहा। हमारी टैक्नोलॉजी की प्रशंसा हुई। रात भर की मेहनत सफल रही।

डेमो के बाद मेरे मन में सवाल आया, “कहीं केके रात भर की मेहनत से डर तो नहीं गए? आखिर, नौकरी के पहले ही दिन हमने उन्हें सोने जो नहीं दिया था।

मैंने केके को बुलाकर पूछा। तो बोले, “डेमो के पहले तो ये होता ही है। इससे डरना क्या।

पिछली जॉब में तो मैं अकेला ही रात भर जाग कर तैयारी करता था। यहां तो सब जाग रहे थे।”

केके की अचानक मृत्यु के बाद, जब मैं उनके कागज़ात संभाल रहा था, तो उनकी डायरी में एक एंट्री मिलीः

Started at PI today. The whole night worked on getting demo ready. I was not working alone.